Friday, March 04, 2005

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आंसू जो है सूख गए.

एक दिन,
जब याद आपकी आई
तो जी भर रोया.
अगले दिन था मौसम बदल गया।

तब दोस्तों के साथ खेला भी,
और जोरो से हँसा भी.
दिन नही बदलते,
किसी के जाने से.
सच तो है यही.
पर जब भी देखता हु,
ख़ुद को आईने में,
तो दीखते है
आंसू जो है सूख गए.

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चाहता तो हु

चाहता तो हु
जंजीरे टूट जाए ये.
पर सलाखों के पीछे,
बस इन्तेज्जर करता हु.
अनभिज्ञ अब तक इससे
सलाखिएँ मोड़ सकता हु,
जंजीरे तोड़ सकता हु.

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दिवाली कैसे मनाऊ ?

एक प्रश्न ख़ुद से पूछता हु,
उत्तर पाने को जूझता हु.

दिवाली कैसे मनाऊ ?
बम पटाखों के शोर में,
क्या एक दिया जलालू उम्मीद की?
की पा लेंगे हम काबू,
प्रदुषण के बढ़ते
इस प्रकोप पर?

दिवाली कैसे मनाऊ ?
खुशियाँ कहा से खोज लाऊ ?
की जलता नही दिया
हर घर में आज भी,
तो फ़िर सौ सौ दिए क्यो जलाऊ?
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हम अपनी आजादी पा सकते है.

देख ब्रितानी सैनिक को
जब सहम गए थे स्कॉट,
और लगे थे लौटने
लेकर अपनी फौज.
तब आवाज लगायी थी वालिस ने
"आजादी, हां हमें चाहिए.
लडेंगे तो मरेंगे,
पर अब पीछे न हटेंगे,आवाज उठाने से"
किया एकजुट सभी जमीदारों को,
और लड़े वे डट के,
रह गए ब्रितानी हक्के बक्के
स्कॉट ने दिए ऐसे झटके।

इतिहास है हमसे कहता :
पा सकते है हम अपनी आज़ादी,
मुठ्ठीभर हो फ़िर भी.
अगर आवाज उठा सकते है,
हम अपनी आजादी पा सकते है.
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इक्षाये

इक्षाये अनेक :
दिल के सपने.
ख़ुद पर भरोसा.
उड़ने की चाहत.
सब कुछ पा लेने की तमन्ना.
क्या सँजोकर रखु इन्हे?

इक्षाये,कभी नामुमकिन.
कभी मुमकिन प्रतीत होती.
प्रयत्न करने को,
हमे है कहती।

और हम है कदम बढाते,
जब इक्षाये है आवाज लगाती.
तो फ़िर क्यो न रखे
अपने इक्षाओ,
अपने सपनो को,
दिल में सँजोकर.
आज की इक्षाएं
कल की हमारी उपलब्धिया जो होंगी.
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कभी-कभी

कभी-कभी
छोटी सी बातें
दिल को है छु जातें,
और रिश्ते है बन जाते.
पल भर में ही,
अचंभित हम है रह जाते.
और जब हम है खोजते,
शब्द नही मिलते.
न ही मिलता कोई कारण.
बस होता है ये आभास,
उस अनजाने से चेहरे पे
इस दिल को है पुरा विश्वास.

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खामोशिया

कभी-कभी
भावनाओ को
शब्दों का साथ नही मिलता.
परिस्थितिया है ऐसी भी आती,
हम रहते है खामोश,
और खामोशिया है कह जाती।

कह जाती है सब कुछ
खामोश रह कर भी
हर बात हर कुछ.
और हमे होता है एहसास,
हर भावनाओ के लिए
शब्द नही है अपने पास.

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क्यो लाये बदलाव हम?

क्यो लाये बदलाव हम?
जो चलता आ रहा,
वो चलता रहे.

क्यो लाये बदलाव हम?
ये परम्परा रही,
गन्दी ही सही.

क्यो लाये बदलाव हम?
बदलाव ज़ंग छेड़ता है,
दिल के रिश्ते तोड़ता है.

क्यो लाये बदलाव हम?
हम ही आगे क्यो बढे?
जब लाखो साथ मेरे है खड़े?

क्यो लाये बदलाव हम?
अच्छी है ये लकीर ,
और हम भी ठहरे एक फ़कीर.


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मै लिखूंगा


मै लिखूंगा
इतिहास तुम्हारी
और वो सारी बात
जिसे छुपाये तुम फिरते हो

मै लिखूंगा
फ़िर से नियम
धर्मं के कानून सारे
अब पक्ष में होंगे हमारे

आज दिन हमारा है
और जवाब देना है तुम्हे
हजारो वर्षो का
हिसाब देना है तुम्हे

इसलिए मै लिखूंगा
और तुम पढोगे
कैसे ख़त्म हुए
मेरी दासता की दास्तान।

और सत्ता कैसे पाई हमने?
एकजुटता कैसे लायी हमने?
दीवारों को कैसे गिराया?
और कैसे अपना घर बनाया
आज मै लिखूंगा


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मेरा दिया




दिवाली की रात
मै भी एक दिया जलाऊंगा
प्रकाश चारो ओर जो फैलाएगा.

मेरा दिया है मेरा पौधा,
जो आंधियो से बुझ न पायेगा.

हां!! दिवाली की रात
जब धुएं के बादल को
आसमान में उड़ता पाऊंगा,
घर के पिछवाडे जा
वृक्षारोपण कर आऊंगा.
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मेरा प्रयोगशाला



ये देखो,
मेरा प्रयोगशाला.
यहाँ करता हु मै तैयार
शब्दों के जाल
और बारूदों के साथ
शब्दों को मिलाके
बनते है विस्फोटक यहाँ पे.
और फ़िर बाट दिए जाते है,
जन - जन में ये हथियार.
एक नही अब अनेक है
प्रयोगशाला ऐसे देश भर में.
अब न टिक सकेगी तुम्हारी सरकार.
समेट लो अपनी
काली करतूतों की,
कारनामो की कहानिया
हो चुकी है जनता होशियार.
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वक्त

एक बार वक्त ने मुझसे कहा था
"साथ मेरे चलो
मिल जायेगी मंजिल तुम्हे
साथ मेरे चलो
"मैंने अनसुना कर दिया
वक्त को जाने दिया

था मजा उठा रहा
वक्त को जाते देखने में
फ़िक्र से कोसो दूर
ऐश उन्माद के अपने बसेरे में

और वास्तविकता ने जब किया प्रहार
दौड़ा था मै भी एक बार
पीछे फ़िर भी रह गया
लहरों के साथ बह गया


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प्यास या प्यार




था दिखाया सपना झूठा
जो एक दिन टूट गया
हम मिले और मिलते ही
अपना साथ छुट गया।

फ़िर क्या हुआ?
याद कभी न क्यो आई?

कल तक तो अटूट
हमे एक दूजे पे विश्वास था,
सोचता हु आज लेकिन
वो प्यास थी या प्यार था?


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तब तक लिखूंगा

तब तक लिखूंगा जब तक
हर भावनाओ को
शब्दों का घर मिल न जाए.
और मिल न जाए जब तक
एक कोना मुझको ;
दिल में तेरे फुल एक
खिल न जाए तब तक.

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मेरी कवितायेँ

अब मै अपने आप को प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन करने में असमर्थ पाता हु. मेरी कविताओ में सौंदर्य रस की तलाश करने वालो को हमेशा ही निराशा मिलेगी क्योकि शब्दों को अलंकृत और सजा कर पेश करना अब मेरी रूचि नही रही.मेरी कवितायेँ हर सामाजिक पहलुओ की जाच-पड़ताल करना चाहती है.प्रश्न खड़े करना चाहती है.मेरी कवितायेँ बस एक कविता बन कर नही रहना चाहती ....वो एक आवाज बनना चाहती है.







PPH
पफ